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Mantra Rig 10.179.003

MANTRA NUMBER:

Mantra 3 of Sukta 179 of Mandal 10 of Rig Veda

Mantra 3 of Varga 37 of Adhyaya 8 of Ashtak 8 of Rig Veda

Mantra 130 of Anuvaak 12 of Mandal 10 of Rig Veda

 

 

MANTRA DEFINITIONS:

ऋषि:   (Rishi) :- वसुमना रौहिदश्वः

देवता (Devataa) :- इन्द्र:

छन्द: (Chhand) :- त्रिष्टुप्

स्वर: (Swar) :- धैवतः

 

 

THE MANTRA

 

The Mantra with meters (Sanskrit)

श्रा॒तं म॑न्य॒ ऊध॑नि श्रा॒तम॒ग्नौ सुश्रा॑तं मन्ये॒ तदृ॒तं नवी॑यः माध्यं॑दिनस्य॒ सव॑नस्य द॒ध्नः पिबे॑न्द्र वज्रिन्पुरुकृज्जुषा॒णः

 

The Mantra without meters (Sanskrit)

श्रातं मन्य ऊधनि श्रातमग्नौ सुश्रातं मन्ये तदृतं नवीयः माध्यंदिनस्य सवनस्य दध्नः पिबेन्द्र वज्रिन्पुरुकृज्जुषाणः

 

The Mantra's transliteration in English

śrātam manya ūdhani śrātam agnau suśrātam manye tad ta navīya | mādhyadinasya savanasya dadhna pibendra vajrin purukj juāa ||

 

The Pada Paath (Sanskrit)

श्रा॒तम् म॒न्ये॒ ऊध॑नि श्रा॒तम् अ॒ग्नौ सुऽश्रा॑तम् म॒न्ये॒ तत् ऋ॒तम् नवी॑यः माध्य॑न्दिनस्य सव॑नस्य द॒ध्नः पिब॑ इ॒न्द्र॒ व॒ज्रि॒न् पु॒रु॒ऽकृ॒त् जु॒षा॒णः

 

The Pada Paath - transliteration

śrātam | manye | ūdhani | śrātam | agnau | su-śrātam | manye | tat | tam | navīya | mādhyandinasya | savanasya | dadhna | piba | indra | vajrin | puru-kt | juāa||


ब्रह्म मुनि जी Brahma Muni ji

१०।१७९।०३

मन्त्रविषयः

 

 

अन्वयार्थः

(श्रातं मन्ये) पक्वं मन्ये जानामि (ऊधनि श्रातम्) गोरूधनि दुग्धाधानाङ्गे जातं दुग्धम् (अग्नौ-सुश्रातं मन्ये) अग्नौ पक्वं तु सुष्ठु पक्वं मन्ये (तत्-नवीयः-ऋतम्) तद्यत्  खलु नवतरं कृषिभूमौ श्रातमन्नं तथैव मृदुजातं गोरूधसि जातं कठोरं कृषिभूमौ जातं खल्वग्नौ पक्वमिव भवति मन्ये वा तद्दातव्यं राज्ञे (वज्रिन्-इन्द्र) वज्रवन् राजन् ! त्वं बहुकार्यकृत् (जुषाणः) अस्मान् जुषाणः सेवमानः प्रीयमाणो वा (माध्यन्दिनस्य सवनस्य) वासन्तिकदिनेषु जातस्यावसरस्य (दध्नः-पिब) दधिं षष्ठी व्यत्ययेन द्वितीयायाम् दधिवन्मृदुद्रवरसं नवान्नफलरसं पिब ऊर्ग्वाऽन्नाद्यं दधि” [तै० २।७।२।२] ॥३॥

(श्रातं मन्ये) मैं पके हुए मानता हूँ-जानता हूँ (ऊधनि श्रातम्) जो गौ के ऊधस् में दूध है, उसे पका हुआ मानता हूँ (अग्नौ सुश्रातं मन्ये) अग्नि में सुपक्व मानता हूँ (तत्-नवीयः-ऋतम्) जो अत्यन्त नवीन कृषिभूमि में होता है कोमलरूप, वह गौ के दूध के समान होता है, कठोर कृषिभूमि में कठोर अन्न पके अन्न को अग्नि में पका हुआ मानता हूँ, वह अन्न राजा के लिए देना चाहिये (वज्रिन्-इन्द्र) हे वज्रवाले राजा इन्द्र ! तू बहुत कार्य करनेवाला (जुषाणः) हमें सेवन करनेवाला और प्रेम करनेवला है (माध्यन्दिनस्य-सवनस्य) वसन्तवाले दिनों में उत्पन्न हुए (दध्नः-पिब) तू मृदु द्रवरस को नवान्न फलरस को पी ॥३॥

भावार्थः

 

गौ के ऊधस् में दूध भी पके अन्न के समान निकलता हुआ सेवन करने योग्य है, अग्नि में पका हुआ सुपक्व कहलाता है, वह सेवन करने योग्य है, खेती का कठोर अन्न अग्नि में पका हुआ सेवन करने योग्य है, खेती का अत्यन्त मृदु अन्न भी गोदुग्ध की भाँति सेवन करने योग्य है, वसन्त ऋतु के दिनों में फलों के रस द्रव पदार्थ खाने योग्य हैं, इस प्रकार राजा पकी हुई कठोर वस्तु और द्रव वस्तु उपहार में प्राप्त करने का अधिकारी है ॥३॥





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