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Mantra Rig 10.179.002

MANTRA NUMBER:

Mantra 2 of Sukta 179 of Mandal 10 of Rig Veda

Mantra 2 of Varga 37 of Adhyaya 8 of Ashtak 8 of Rig Veda

Mantra 129 of Anuvaak 12 of Mandal 10 of Rig Veda

 

 

MANTRA DEFINITIONS:

ऋषि:   (Rishi) :- प्रतर्दनः काशिराजः

देवता (Devataa) :- इन्द्र:

छन्द: (Chhand) :- निचृत्त्रिष्टुप्

स्वर: (Swar) :- धैवतः

 

 

THE MANTRA

 

The Mantra with meters (Sanskrit)

श्रा॒तं ह॒विरो ष्वि॑न्द्र॒ प्र या॑हि ज॒गाम॒ सूरो॒ अध्व॑नो॒ विम॑ध्यम् परि॑ त्वासते नि॒धिभि॒: सखा॑यः कुल॒पा व्रा॒जप॑तिं॒ चर॑न्तम्

 

The Mantra without meters (Sanskrit)

श्रातं हविरो ष्विन्द्र प्र याहि जगाम सूरो अध्वनो विमध्यम् परि त्वासते निधिभिः सखायः कुलपा व्राजपतिं चरन्तम्

 

The Mantra's transliteration in English

śrāta havir o v indra pra yāhi jagāma sūro adhvano vimadhyam | pari tvāsate nidhibhi sakhāya kulapā na vrājapati carantam ||

 

The Pada Paath (Sanskrit)

श्रा॒तम् ह॒विः इति॑ सु इ॒न्द्र॒ प्र या॒हि॒ ज॒गाम॑ सूरः॑ अध्व॑नः विऽम॑ध्यम् परि॑ त्वा॒ आ॒स॒ते॒ नि॒धिऽभिः॑ सखा॑यः कु॒ल॒ऽपाः व्रा॒जऽप॑तिम् चर॑न्तम्

 

The Pada Paath - transliteration

śātam | havi | o iti | su | indra | pra | yāhi | jagāma | sūra | adhvana | vi-madhyam | pari | tvā | āsate | nidhi-bhi | sakhāya | kula-pā | na | vrāja-patim | carantam ||


ब्रह्म मुनि जी Brahma Muni ji

१०।१७९।०२

मन्त्रविषयः

 

 

 

अन्वयार्थः

(इन्द्र) हे राजन् ! (श्रातं हविः-उ सु) सुपक्वं हि खल्वदनीयमन्नं हविः-अत्तव्यमन्नम्” [यजु० २९।११ दयानन्दः] (प्र-आयाहि) प्रकृष्टमागच्छ (सूरः-अध्वनः-वि मध्यं जगाम) सूर्यः सूरः-यः सरति स सूर्यः” [ऋ० १।५०।९ दयानन्दः] “सूर उदितिमार्गस्य विशिष्टमध्यमं कालमुत्तरायणस्य मध्यमाषाढमासं प्राप्तवान् (सखायः) समानख्यानाः समानराष्ट्राः प्रमुखप्रजाजनाः (निधिभिः) समर्पणयोग्यैर्निधानैरन्नैः सह तद्दानाय (त्वा परि-आसते) त्वां परित-उपविशन्ति प्रतीक्षन्ते, इत्यर्थः, (व्राजपतिं चरन्तं कुलपाः-न) व्रजन्ति यस्मिन् स व्राजः-“घञ्प्रत्ययोऽधिकरणेव्राजस्य गृहस्य पतिं चरन्तं सेव्यमानम् कर्मणि कर्तृप्रत्ययो व्यत्ययेनकुलस्य वंशस्य रक्षका भाविवंशचालकाः पुत्रादयः यथा तमुपविशन्ति ॥२॥

(इन्द्र) हे राजन् ! (श्रातं हविः-उ-सु) सुपक्व खाने योग्य अन्न तैयार है (प्र याहि) तू प्रकृष्टरूप से आजा (सूरः) सूर्य (अध्वनः) मार्ग का (वि मध्यम्) मार्ग के विशिष्ट मध्यम काल अर्थात् उत्तरायण के मध्य आषाढ़ मास में सूर्य (जगाम) प्राप्त हुआ (सखायः) समान राष्ट्रवासी जनों (निधिभिः) समर्पणयोग्य निधानों-अन्नों के द्वारा अर्थात् उन अन्नों को देने के लिए (त्वा परि-आसते) तेरे लिए बैठे हैं, तेरी प्रतीक्षा करते हैं (चरन्तं व्राजपतिम्) सेवन किये जाते हुए गृहपति को (कुलपाः-न) कुल के-वंश के रक्षक भावी वंशचालक पुत्रादि जैसे उसके पास-बैठते हैं ॥२॥

 

भावार्थः

 

अच्छे राजा के लिये उसके प्रजाजन कृषि आदि का कर उपहार, अन्न देने के लिये उत्सुक रहते हैं और रहना चाहिये, वे इस प्रकार प्रतीक्षा करते और उत्सुक रहते हैं, जैसे गृहपति वृद्धजन को भोजन देने के लिए उसके पुत्रादि उत्सुक रहते हैं ॥२॥





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