MANTRA NUMBER:
Mantra 1 of Sukta
101 of Mandal 1 of Rig Veda
Mantra 1 of Varga
12 of Adhyaya 7 of Ashtak 1 of Rig Veda
Mantra 68 of
Anuvaak 15 of Mandal 1 of Rig Veda
MANTRA
DEFINITIONS:
ऋषि: (Rishi)
:- कुत्सः आङ्गिरसः
देवता (Devataa) :- इन्द्र:
छन्द: (Chhand) :- निचृज्जगती
स्वर: (Swar) :- निषादः
THE MANTRA
The Mantra with
meters (Sanskrit)
प्र म॒न्दिने॑ पितु॒मद॑र्चता॒ वचो॒ यः कृ॒ष्णग॑र्भा नि॒रह॑न्नृ॒जिश्व॑ना । अ॒व॒स्यवो॒ वृष॑णं॒ वज्र॑दक्षिणं म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥
The Mantra
without meters (Sanskrit)
प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना । अवस्यवो वृषणं
वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥
The Mantra's
transliteration in English
pra mandine pitumad
arcatā vaco yaḥ kṛṣṇagarbhā nirahann ṛjiśvanā | avasyavo vṛṣaṇaṁ vajradakṣiṇam marutvantaṁ sakhyāya havāmahe ||
The Pada Paath
(Sanskrit)
प्र । म॒न्दिने॑ । पि॒तु॒ऽमत् । अ॒र्च॒त॒ । वचः॑ । यः । कृ॒ष्णऽग॑र्भाः । निः॒ऽअह॑न् । ऋ॒जिश्व॑ना । अ॒व॒स्यवः॑ । वृष॑णम् । वज्र॑ऽदक्षिणम् । म॒रुत्व॑न्तम् । स॒ख्याय॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
The Pada Paath -
transliteration
pra | mandine |
pitu-mat | arcata | vacaḥ | yaḥ | kṛṣṇa-garbhāḥ | niḥ-ahan | ṛjiśvanā | avasyavaḥ
| vṛṣaṇam | vajra-dakṣiṇam | marutvantam |
sakhyāya | havāmahe ||
महर्षि दयानन्द सरस्वती Maharshi Dayaananda Saraswati
०१।१०१।०१
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मन्त्रविषयः-
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अथ शालाध्यक्षः
कीदृश इत्युपदिश्यते।
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अब एक सौ एकवें
सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में शाला का अधीश कैसा होवें, यह विषय
कहा है।
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पदार्थः-
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(प्र)
प्रकृष्टार्थे (मन्दिने) आनन्दित आनन्दप्रदाय (पितुमत्) सुसंस्कृतमन्नाद्यम् (अर्चत)
प्रदत्तेन पूजयत। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (वचः) प्रियं वचनम् (यः) अनूचानोऽध्यापकः
(कृष्णगर्भाः) कृष्णा विलिखिता रेखाविद्यादयो गर्भायैस्ते (निरहन्) निरन्तरं
हन्ति (ऋजिश्वना) ऋजवः सरलाः श्वानो वृद्धयो यस्मिन्नध्ययने तेन। अत्र
श्वन्शब्दः श्विधातोः कनिन्प्रत्ययान्तो निपातित उणादौ। (अवस्यवः) आत्मनोऽवो
रक्षणादिकमिच्छवः (वृषणम्) विद्यावृष्टिकर्त्तारम् (वज्रदक्षिणम्) वज्रा
अविद्याछेदका दक्षिणा यस्मात्तम् (मरुत्वन्तम्) प्रशस्ता मरुतो विद्यावन्त
ऋत्विजोऽध्यापका विद्यन्ते यस्मिँस्तम् (सख्याय) सख्युः कर्मणे भावाय वा
(हवामहे) स्वीकुर्महे ॥१॥
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तुम लोग (यः) जो
उपदेश करने वा पढ़ानेवाला (ऋजिश्वना) ऐसे पाठ से कि जिसमें उत्तम वाणियों की
धारणाशक्ति की अनेक प्रकार से वृद्धि हो, उससे मूर्खपन को (निः, अहन्) निरन्तर
हनें, उस (मन्दिने) आनन्दी पुरुष और आनन्द देनेवाले के लिये (पितुमत्) अच्छा
बनाया हुआ अन्न अर्थात् पूरी, कचौरी, लड्डू, बालूशाही, जलेबी, इमरती, आदि
अच्छे-अच्छे पदार्थोंवाले भोजन और (वचः) पियारी वाणी को (प्रार्चत) अच्छे प्रकार
निवेदन कर उसका सत्कार करो। और (अवस्यवः) अपने को रक्षा आदि व्यवहारों को चाहते हुए
(कृष्णगर्भाः) जिन्होंने रेखागणित आदि विद्याओं के मर्म खोले हैं वे हम लोग
(सख्याय) मित्र के काम वा मित्रपनके लिये (वृषणम्) विद्या की वृद्धि करनेवाले
(वज्रदक्षिणम्) जिससे अविद्या का विनाश करनेवाली वा विद्यादि धन देनेवाली
दक्षिणा मिले (मरुत्वन्तम्) जिसके समीप प्रशंसित विद्यावाले ऋत्विज् अर्थात् आप
यज्ञ करें दूसरे को करावें ऐसे पढ़ानेवाले हों उस अध्यापक अर्थात् उत्तम
पढ़ानेवाले को (हवामहे) स्वीकार करते हैं, उसको तुम लोग भी अच्छे प्रकार सत्कार
के साथ स्वीकार करो ॥१॥
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| अन्वयः-
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यूयं य ऋजिश्वनाऽविद्यात्वं
निरहंस्तस्मै मन्दिने पितुमद् वचः प्रार्चतावस्यवः कृष्णगर्भा वयं सख्याय यं
वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तमध्यापकं हवामहे तं यूयमपि प्रार्चत ॥१॥
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भावार्थः-
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मनुष्यैर्यस्माद्विद्या
ग्राह्या स मनोवचः कर्मधनैः सदा सत्कर्त्तव्यः। येऽध्याप्यास्ते प्रयत्नेन
सुशिक्ष्य विद्वांसः संपादनीयाः सर्वदा श्रेष्ठैर्मैत्रीं संभाव्य सत्कर्मनिष्ठा
रक्षणीया ॥१॥
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मनुष्यों को
चाहिये कि जिससे विद्या लेवें उसका सत्कार मन, वचन, कर्म और धन से सदा करें और
पढ़ानेवालों को चाहिये कि जो पढ़ाने योग्य हों उन्हें अच्छे यत्न के साथ
उत्तम-उत्तम शिक्षा देकर विद्वान् करें और सब दिन श्रेष्ठों के साथ मित्रभाव रख
उत्तम-उत्तम काम में चित्तवृत्ति की स्थिरता रक्खें ॥१॥
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