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Mantra Rig 01.033.013

MANTRA NUMBER:

Mantra 13 of Sukta 33 of Mandal 1 of Rig Veda

Mantra 3 of Varga 3 of Adhyaya 3 of Ashtak 1 of Rig Veda

Mantra 46 of Anuvaak 7 of Mandal 1 of Rig Veda

 

 

MANTRA DEFINITIONS:

ऋषि:   (Rishi) :- हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः

देवता (Devataa) :- इन्द्र:

छन्द: (Chhand) :- निचृत्त्रिष्टुप्

स्वर: (Swar) :- धैवतः

 

 

THE MANTRA

 

The Mantra with meters (Sanskrit)

अ॒भि सि॒ध्मो अ॑जिगादस्य॒ शत्रू॒न्वि ति॒ग्मेन॑ वृष॒भेणा॒ पुरो॑ऽभेत् सं वज्रे॑णासृजद्वृ॒त्रमिन्द्र॒: प्र स्वां म॒तिम॑तिर॒च्छाश॑दानः

 

The Mantra without meters (Sanskrit)

अभि सिध्मो अजिगादस्य शत्रून्वि तिग्मेन वृषभेणा पुरोऽभेत् सं वज्रेणासृजद्वृत्रमिन्द्रः प्र स्वां मतिमतिरच्छाशदानः

 

The Mantra's transliteration in English

abhi sidhmo ajigād asya śatrūn vi tigmena vṛṣabheā puro 'bhet | sa vajreāsjad vtram indra pra svām matim atirac chāśadāna 

 

The Pada Paath (Sanskrit)

अ॒भि सि॒ध्मः अ॒जि॒गा॒त् अ॒स्य॒ शत्रू॑न् वि ति॒ग्मेन॑ वृ॒ष॒भेण॑ पुरः॑ अ॒भे॒त् सम् वज्रे॑ण अ॒सृ॒ज॒त् वृ॒त्रम् इन्द्रः॑ प्र स्वाम् म॒तिम् अ॒ति॒र॒त् शाश॑दानः

 

The Pada Paath - transliteration

abhi | sidhma | ajigāt | asya | śatrūn | vi | tigmena | vṛṣabhea | pura | abhet | sam | vajrea | asjat | vtram | indra | pra | svām | matim | atirat | śāśadānaḥ 


महर्षि दयानन्द सरस्वती  Maharshi Dayaananda Saraswati

०१।०३३।१३

मन्त्रविषयः-

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

 

पदार्थः-

(अभि) आभिमुख्ये (सिध्मः) सेवते प्राप्नोति विजयं येन गुणेन सः। अत्र षिधुगत्यामित्यस्मादौणादिको मक् प्रत्ययः। (अजिगात्) प्राप्नोति अत्र सर्वत्र लडर्थे लङ्। जिगातीति गतिकर्मसु पठितम्। निघं० २।१। (अस्य) स्तनयित्नोः (शत्रून्) मेघावयवान् (वि) विशेषार्थे (तिग्मेन) तीक्ष्णेन तेजसा (वृषभेण) वृष्टिकरणोत्तमेन। अन्येषामपि इति दीर्घः। (पुरः) पुराणि (अभेत्) भिनत्ति (सम्) सम्यगर्थे (वज्रेण) गतिमता तेजसा (असृजत्) सृजति (वृत्रम्) मेघम् (इन्द्रः) सूर्य्यः (प्र) प्रकृष्टार्थे (स्वाम्) स्वकीयाम् (मतिम्) ज्ञापनम् (अतिरत्) संतरति प्लावयति अत्र विकरणव्यत्ययेन शः। (शाशदानः) अतिशयेन शीयते शातयति छिनत्ति यः सः ॥१३॥

जैसे (अस्य) इस सूर्य का (सिध्मः) विजय प्राप्त करानेवाला वेग (तिग्मेन) तीक्ष्ण (वृषभेण) वृष्टि करनेवाले तेज से (शत्रून्) मेघ के अवयवों को (व्यजिगात्) प्राप्त होता और इस मेघ के (पुरः) नगरों के सदृश समुदायों को (व्यभेत्) भेदन करता है जैसे (शाशदानः) अत्यन्त छेदन करनेवाली (इन्द्रः) बिजुली (वृत्रम्) मेघ को# (प्रातिरत्) अच्छे प्रकार नीचा करती है वैसे ही हम सेनाध्यक्ष को होना चाहिये ॥१३॥ # [(व्रजेण) तेज से समसृजत्) मिलाता है, तथा (स्वाम्) अपनी (मतिम्) ज्ञान से। इतना पाठ छूट गया है। सं०]

 

अन्वयः-

यथास्य स्तनयित्नोः सिध्मो वेगस्तिग्मेन वृषभेण शत्रून् व्यजिगाद्विजिगाति। अस्य पुरो व्यभेत् पुराणि विभिनत्ति यथायं शाशदान इन्द्रो वृत्रं वज्रेण समसृजत्संसृजति संयुक्तं करोति तथा मतिं ज्ञापिकां स्यां रीतिं प्रातिरत् प्रकृष्टतया संतरति तथैवानेन सेनाध्यक्षेण भवितव्यम् ॥१३॥


 

भावार्थः-

अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यथा विद्युन्मेघावयवाँस्तीक्ष्णवेगेन घनाकारं मेघं च छित्वा भूमौ निपात्य ज्ञापयति तथैव सभासेनाध्यक्षो बुद्धिशरीरबलसेनावेगेन शत्रूँश्छित्वा शस्त्रप्रहारैर्निपात्य स्वसंमतावानयेदिति ॥१३॥

इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे बिजुली मेघ के अवयव बद्दलों को तीक्ष्णवेग से छिन्न-भिन्न और भूमि में गेर कर उसको वश में करती है वैसे ही सभासेनाध्यक्ष को चाहिये कि बुद्धिशरीर बल वा सेना के वेग से शत्रुओं को छिन्न-भिन्न और शस्त्रों के अच्छे प्रकार प्रहार से पृथिवी पर गिरा कर अपनी सम्मति में लावें ॥१३॥

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