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Mantra Rig 01.033.011

MANTRA NUMBER:

Mantra 11 of Sukta 33 of Mandal 1 of Rig Veda

Mantra 1 of Varga 3 of Adhyaya 3 of Ashtak 1 of Rig Veda

Mantra 44 of Anuvaak 7 of Mandal 1 of Rig Veda

 

 

MANTRA DEFINITIONS:

ऋषि:   (Rishi) :- हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः

देवता (Devataa) :- इन्द्र:

छन्द: (Chhand) :- विराट्त्रिस्टुप्

स्वर: (Swar) :- धैवतः

 

 

THE MANTRA

 

The Mantra with meters (Sanskrit)

अनु॑ स्व॒धाम॑क्षर॒न्नापो॑ अ॒स्याव॑र्धत॒ मध्य॒ ना॒व्या॑नाम् स॒ध्री॒चीने॑न॒ मन॑सा॒ तमिन्द्र॒ ओजि॑ष्ठेन॒ हन्म॑नाहन्न॒भि द्यून्

 

The Mantra without meters (Sanskrit)

अनु स्वधामक्षरन्नापो अस्यावर्धत मध्य नाव्यानाम् सध्रीचीनेन मनसा तमिन्द्र ओजिष्ठेन हन्मनाहन्नभि द्यून्

 

The Mantra's transliteration in English

anu svadhām akarann āpo asyāvardhata madhya ā nāvyānām | sadhrīcīnena manasā tam indra ojiṣṭhena hanmanāhann abhi dyūn 

 

The Pada Paath (Sanskrit)

अनु॑ स्व॒धाम् अ॒क्ष॒र॒न् आपः॑ अ॒स्य॒ अव॑र्धत मध्ये॑ ना॒व्या॑नाम् स॒ध्री॒चीने॑न मन॑सा तम् इन्द्रः॑ ओजि॑ष्ठेन हन्म॑ना अ॒ह॒न् अ॒भि द्यून्

 

The Pada Paath - transliteration

anu | svadhām | akaran | āpa | asya | avardhata | madhye | ā | nāvyānām | sadhrīcīnena | manasā | tam | indra | ojiṣṭhena | hanmanā | ahan | abhi | dyūn 


महर्षि दयानन्द सरस्वती  Maharshi Dayaananda Saraswati

०१।०३३।११

मन्त्रविषयः-

पुनस्तस्येन्द्रस्य कृत्यमुपदिश्यते।

फिर अगले मन्त्र में इन्द्र के कर्मों का उपदेश किया है।

 

पदार्थः-

(अनु) वीप्सायाम् (स्वधाम्) अन्नमन्नं प्रति (अक्षरन्) संचलन्ति। अत्र सर्वत्र लडर्थे लङ्। (आपः) जलानि (अस्य) सूर्यस्य (अवर्धत) वर्धते (मध्ये) (आ) समन्तात् (नाव्यानाम्) नावा तार्य्याणां नदी तड़ागसमुद्राणां नौ वयो धर्म० इत्यादिना #यत्। (सध्रीचीनेन) सहांचति गच्छति तत्सध्र्यङ् सध्र्यङ् एव सध्रीचीनं तेन। सहस्य सध्रिः। अ० ।३।। अनेन सध्र्यादेशः। विभाषांचिरदिक् स्त्रियाम्। *अ० ।३।१३। इति ¤दीर्घत्वम्। (मनसा) मनोवद्वेगेन (तम्) वृत्रम् (इन्द्रः) विद्युत् (ओजिष्ठेन) ओजो बलं तदतिशयितं तेन। ओज इति बलनामसु पठितम्। निघं० २।। (हन्मना) हन्ति येन तेन। अत्र कृतो बहुलमिति। अन्येभ्योपि दृश्यंत इति करणे मनिन् प्रत्ययः। न संयोगाद्वमन्तात्। अ० ।१३। इत्यल्लोपो न। (अहन्) हन्ति (अभि) आभिमुख्ये (द्यून्) दीप्तान् दिवसान् ॥११#[अ० ४।४।९१।] *[अ० ५।४।८।] ¤[इत्यनेन खः प्रत्ययः, ‘चौ अ० ६।३।१३८ इत्यनेन च दीर्घत्वम्। सं०]

हे सेना के अध्यक्ष ! आप जैसे (अस्य) इस मेघ का शरीर (नाव्यानाम्) नदी, तड़ाग और समुद्रों में (आवर्द्धत) जैसे इस मेघ में स्थित हुए (आपः) जिस सूर्य से छिन्न-भिन्न होकर (अनुस्वधाम्) अन्न-२ के प्रति (अक्षरन्) प्राप्त होते और जैसे यह मेघ (सध्रीचीनेन) साथ चलनेवाले (ओजिष्ठेन) अत्यन्त बलयुक्त (हन्मना) हनन करने के साधन (मनसा) मन के सदृश वेग से इस सूर्य के (अभिद्यून्) प्रकाशयुक्त दिनों को (अहन्) अंधकार से ढांप लेता और जैसे सूर्य अपने साथ चलनेवाले किरणसमूह के बल वा वेग से (तम्) उस मेघ को (अहन्) मारता और अपने (अभिद्यून्) प्रकाश युक्त दिनों का प्रकाश करता है वैसे नदी तड़ाग और समुद्र के बीच नौका आदि साधन के सहित अपनी सेना को बढ़ा तथा इस युद्ध में प्राण आदि सब इन्द्रियों को अन्नादि पदार्थों से पुष्ट करके अपनी सेना से (तम्) उस शत्रु को (अहन्) मारा कीजिये ॥११

 

अन्वयः-

हे सेनाधिपते यथास्य वृत्रस्य शरीरं नाव्यानां मध्ये आवर्धत यथास्य आपः सूर्य्येण छिन्ना अनुस्वधामक्षरन्। यथाचायं वृत्रः सध्रीचीनेनौजिष्ठेन हन्मना मनसाऽस्य सूर्य्यस्याभिद्यूनहन् हन्ति। यथेन्द्रो विद्युत् सध्रीचीनेनौजिष्ठेन बलेन तं हन्ति। अभिद्यून् स प्रकाशान् दर्शयति तथा नाव्यानां मध्ये नौकादिसाधनसहितं बलमावर्ध्यास्य युद्धस्य मध्ये प्राणादीनींद्रियाण्यनुस्वधां चालय सैन्येन तमिमं शत्रुं हिंधि न्यायादीन् प्रकाशय च ११

 

 

भावार्थः-

अत्रवाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्युता वृत्रं हत्वा निपातिता वृष्टिर्यवादिकमन्नं नदीतड़ागसमुद्रजलं च वर्धयति तथैव मनुष्यैः सर्वेषां शुभगुणानां सर्वतो वर्षणेन प्रजाः सुखयित्वा शत्रून् हत्वा विद्यासद्गुणान् प्रकाश्य सदा धर्मः सेवनीय इति ॥११

इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे बिजुली ने मेघ को मार कर पृथिवी पर गिरी हुई वृष्टि यव आदि अन्न-२ को बढ़ाती और नदी तड़ाग समुद्र के जल को बढ़ाती है वैसे ही मनुष्यों को चाहिये कि सब प्रकार शुभ गुणों की वर्षा से प्रजा सुख शत्रुओं का मारण और विद्या वृद्धि से उत्तम गुणों का प्रकाश करके धर्म का सेवन सदैव करें ॥११

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